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Friday, September 16, 2016

Navlakha Temple, Ghumli Jamnagar Gujrat


In the Barda Hills, you can visit Ghumli’s famous temples such as the magnificent Navlakha Temple from the Solanki dynasty and the Vikia Vav, perhaps one of the largest stepwells in Gujarat. You can trek in the Wildlife Sanctuary, though spotting wildlife is, as usual, often difficult. These hills are also home to the Maldhari, Bharvad, Rabari and Gadhvi tribal communities. The main entrance is from the Porbandar side of the hills, but there are also entries from Jamnagar District, either from Kapudi naka, taking a car up to Kileshwar Temple and hiking down, or from Abhapara Hill. There are no lodging facilities, but camping is possible with permission. Contact Conservator of Forests Office, Porbandar, Tel: 02862242551.

How to get there

By road: Dwarka is on the state highway from Jamnagar to Dwarka. Direct buses available from Jamnagar and Ahmedabad.
By rail: Dwarka is a station on the Ahmedabad-Okha broad gauge railway line, with trains connecting it to Jamnagar (137 km), Rajkot (217 km) and Ahmedabad (471 km), and some trains that continue all the way down the coast through Vadodara, Surat, Mumbai, Goa, Karnataka, to the southern tip of India in Kerala.
By air: Nearest airport is Jamnagar (137 km).




 http://www.jamnagar.org/gopgumli.htm



Sunday, January 31, 2016

बृहदीश्वर मंदिर : अदभुत वास्तुकला, brihadeshwara temple of Tanjore where the temple tower's shadow will never fall on earth

brihadeshwara temple of Tanjore ,  where the temple tower's shadow will never fall on earth


बृहदीश्वर मंदिर : अदभुत वास्तुकला का उदाहरण
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क्या आप पीसा की झुकी हुई
मीनार के बारे में जानते हैं?? जरूर जानते होंगे. बच्चों
की पाठ्य-पुस्तकों से लेकर जवानी तक
आप सभी ने पीसा की इस
मीनार के बारे में काफी कुछ पढ़ा-लिखा होगा.
कई पैसे वाले भारतीय सैलानी तो वहाँ होकर
भी आए होंगे. पीसा की
मीनार के बारे में, वहाँ हमें बताया जाता है कि उस
मीनार की ऊँचाई 180 फुट है और इसके
निर्माण में 200 वर्ष लगे थे तथा सन 2010 में इस
मीनार ने अपनी आयु के 630 वर्ष पूर्ण
कर लिए. हमें और आपको बताया गया है कि यह बड़ी
ही शानदार और अदभुत किस्म की
वास्तुकला का नमूना है. यही हाल मिस्त्र के पिरामिडों
के बारे में भी है. आज की
पीढ़ी को यह जरूर पता होगा कि मिस्त्र के
पिरामिड क्या हैं, कैसे बने, उसके अंदर क्या है आदि-आदि.
लेकिन क्या आपको तंजावूर स्थित “बृहदीश्वर
मंदिर” (Brihadishwara Temple) के बारे में
जानकारी है? ये नाम सुनकर चौंक गए ना?? मुझे
विश्वास है कि पाठकों में से अधिकाँश ने इस मंदिर के बारे में
कभी पढ़ना तो दूर, सुना भी
नहीं होगा. क्योंकि यह मंदिर हमारे बच्चों के
पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है. ना तो भारतवासियों ने
कभी अपनी समृद्ध परंपरा, विराट
सांस्कृतिक विरासत एवं प्राचीन वास्तुकला के बारे में
गंभीरता से जानने की कोशिश
की और ना ही पिछले साठ वर्ष से लगभग
सभी पाठ्यक्रमों पर कब्जा किए हुए
विधर्मी वामपंथियों एवं सेकुलरिज़्म की
“भूतबाधा” से ग्रस्त बुद्धिजीवियों ने इसका गौरव
पुनर्भाषित एवं पुनर्स्थापित करने की कोई कोशिश
की. भला वे ऐसा क्योंकर करने लगे?? उनके अनुसार तो
भारत में जो कुछ भी है, वह सिर्फ पिछले 400 वर्ष
(250 वर्ष मुगलों के और 150 वर्ष अंग्रेजों के) की
ही देन है. उससे पहले ना तो कभी भारत
मौजूद था, और ना ही इस धरती पर कुछ
बनाया जाता था. “बौद्धिक फूहड़ता” की हद तो यह है
कि भारत की खोज वास्कोडिगामा द्वारा बताई
जाती है, तो फिर वास्कोडिगामा के यहाँ आने से पहले
हम क्या थे?? बन्दर?? या भारत में कश्मीर से केरल
तक की धरती पर सिर्फ जंगल
ही हुआ करते थे?? स्पष्ट है कि इसका जवाब सिर्फ
“नहीं” है. क्योंकि वास्कोडिगामा के यहाँ आने से पहले
हजारों वर्षों पुरानी हमारी पूर्ण विकसित
सभ्यता थी, संस्कृति थी, मंदिर थे, बाज़ार
थे, शासन थे, नगर थे, व्यवस्थाएँ थीं... और यह सब
जानबूझकर बड़े ही षडयंत्रपूर्वक पिछली
तीन पीढ़ियों से छिपाया गया. उन्हें सिर्फ
उतना ही पढ़ाया गया अथवा बताया गया जिससे उनके मन
में भारत के प्रति “हीन-भावना” जागृत हो. पाठ्यक्रम
कुछ इस तरह रचाए गए कि हमें यह महसूस हो कि हम
गुलामी के दिनों में ही सुखी थे,
उससे पहले तो सभी भारतवासी
जंगली और अनपढ़ थे...
बहरहाल... बात हो रही थी
बृहदीश्वर मंदिर की. दक्षिण भारत के
तंजावूर शहर में स्थित बृहदीश्वर मंदिर भारत का
सबसे बड़ा मंदिर कहा जा सकता है. यह मंदिर “तंजावूर प्रिय
कोविल” के नाम से भी प्रसिद्ध है. सन 1010 में
अर्थात आज से एक हजार वर्ष पूर्व राजराजा चोल ने इस विशाल
शिव मंदिर का निर्माण करवाया था. इस मंदिर की प्रमुख
वास्तु (अर्थात गर्भगृह के ऊपर) की ऊँचाई 216
फुट है (यानी पीसा की
मीनार से कई फुट ऊँचा). यह मंदिर न सिर्फ वास्तुकला
का बेजोड़ नमूना है, बल्कि तत्कालीन तमिल संस्कृति
की समृद्ध परंपरा को भी प्रदर्शित करता
है. कावेरी नदी के तट पर स्थित यह
मंदिर पूरी तरह से ग्रेनाईट की
बड़ी-बड़ी चट्टानों से निर्मित है. ये चट्टानें
और भारी पत्थर पचास किमी दूर
पहाड़ी से लाए गए थे. इसकी अदभुत
वास्तुकला एवं मूर्तिकला को देखते हुए UNESCO ने इसे “विश्व
धरोहर” के रूप में चिन्हित किया हुआ है.
दसवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में चोल
वंश के अरुलमोझिवर्मन नाम से एक लोकप्रिय राजा थे जिन्हें
राजराजा चोल भी कहा जाता था. पूरे दक्षिण भारत पर
उनका साम्राज्य था. राजराजा चोल का शासन श्रीलंका,
मलय, मालदीव द्वीपों तक भी
फैला हुआ था. जब वे श्रीलंका के नरेश बने तब
भगवान शिव उनके स्वप्न में आए और इस आधार पर उन्होंने इस
विराट मंदिर की आधारशिला रखी. चोल नरेश
ने सबसे पहले इस मंदिर का नाम “राजराजेश्वर” रखा था और
तत्कालीन शासन के सभी प्रमुख उत्सव
इसी मंदिर में संचालित होते थे. उन दिनों तंजावूर चोलवंश
की राजधानी था तथा समूचे दक्षिण भारत
की व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र भी. इस
मंदिर का निर्माण पारंपरिक वास्तुज्ञान पर आधारित था, जिसे चोलवंश
के नरेशों की तीन-चार्फ़ पीढ़ियों
ने रहस्य ही रखा. बाद में जब पश्चिम से मराठाओं
और नायकरों ने इस क्षेत्र को जीता तब इसे
“बृहदीश्वर मंदिर” नाम दिया.
तंजावुर प्रिय कोविल अपने समय के तत्कालीन
सभी मंदिरों के मुकाबले चालीस गुना विशाल
था. इसके 216 फुट ऊँचे विराट और भव्य मुख्य इमारत को इसके
आकार के कारण “दक्षिण मेरु” भी कहा जाता है.
216 फुट ऊँचे इस शिखर के निर्माण में किसी
भी जुड़ाई मटेरियल का इस्तेमाल नहीं
हुआ है. इतना ऊँचा मंदिर सिर्फ पत्थरों को आपस में “इंटर-लॉकिंग”
पद्धति से जोड़कर किया गया है. इसे सहारा देने के लिए इसमें
बीच में कोई भी स्तंभ नहीं
है, अर्थात यह पूरा शिखर अंदर से खोखला है. भगवान शिव के
समक्ष सदैव स्थापित होने वाली “नंदी”
की मूर्ति 16 फुट लंबी और 13 फुट
ऊँची है तथा एक ही विशाल पत्थर से
निर्मित है. अष्टकोण आकार का मुख्य शिखर एक ही
विशाल ग्रेनाईट पत्थर से बनाया गया है. इस शिखर और मंदिर
की दीवारों पर चारों तरफ विभिन्न
नक्काशी और कलाकृतियां उकेरी गई हैं.
गर्भगृह दो मंजिला है तथा शिवलिंग की ऊँचाई
तीन मीटर है. आगे आने वाले चोल राजाओं
ने सुरक्षा की दृष्टि से 270 मीटर
लंबी 130 चौड़ी बाहरी
दीवार का भी निर्माण करवाया.
सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी
तक यह मंदिर कपड़ा, घी, तेल, सुगन्धित द्रव्यों आदि
के क्रय-विक्रय का प्रमुख केन्द्र था. आसपास के गाँवों से लोग
सामान लेकर आते, मंदिर में श्रद्धा से अर्पण करते तथा बचा हुआ
सामान बेचकर घर जाते. सबसे अधिक आश्चर्य की
बात यह है कि यह मंदिर अभी तक छः भूकंप झेल
चुका है, परन्तु अभी तक इसके शिखर अथवा मंडपम
को कुछ भी नहीं हुआ. दुर्भाग्य
की बात यह है कि शिरडी में सांई
की “मजार” की मार्केटिंग इतनी
जबरदस्त है, परन्तु दुर्भाग्य से ऐसे अदभुत मंदिर
की जानकारी भारत में कम ही
लोगों को है. इस मंदिर के वास्तुशिल्पी कुंजारा मल्लन
माने जाते हैं. इन्होंने प्राचीन वास्तुशास्त्र एवं
आगमशास्त्र का उपयोग करते हुए इस मंदिर की रचना
में (एक सही तीन बटे आठ या 1-3/8
अर्थात, एक अंगुल) फार्मूले का उपयोग किया. इसके अनुसार इस
मात्रा के चौबीस यूनिट का माप 33 इंच होता है, जिसे
उस समय "हस्त", "मुज़म" अथवा "किश्कु" कहा जाता था.
वास्तुकला की इसी माप यूनिट का उल्लेख
चार से छह हजार वर्ष पहले के मंदिरों एवं सिंधु घाटी
सभ्यता के निर्माण कार्यों में भी पाया गया है. कितने
इंजीनियरों को आज इसके बारे में जानकारी
है??
सितम्बर 2010 में इस मंदिर की सहस्त्राब्दि अर्थात
एक हजारवाँ स्थापना दिवस धूमधाम से मनाया गया. UNESCO ने
इसे “द ग्रेट चोला टेम्पल” के नाम से संरक्षित स्मारकों में स्थान
दिया. इसके अलावा केन्द्र सरकार ने इस अवसर को यादगार बनाने के
लिए एक डाक टिकट एवं पाँच रूपए का सिक्का जारी
किया. परन्तु इसे लोक-प्रसिद्ध बनाने के कोई प्रयास
नहीं हुए.
अक्सर हमारी पाठ्यपुस्तकों में पश्चिम
की वास्तुकला के कसीदे काढ़े जाते हैं और
भारतीय संस्कृति की समृद्ध परंपरा को
कमतर करके आँका जाता है अथवा विकृत करके दिखाया जाता है.
इस विराट मंदिर को देखकर सहज ही कुछ सवाल
भी खड़े होते हैं कि स्वाभाविक है इस मंदिर के निर्माण
के समय विभिन्न प्रकार की गणितीय एवं
वैज्ञानिक गणनाएँ की गई होंगी.
खगोलशास्त्र तथा भूगर्भशास्त्र को भी ध्यान में रखा
गया होगा. ऐसा तो हो नहीं सकता कि पत्थर लाए, फिर
एक के ऊपर एक रखते चले गए और मंदिर बन गया... जरूर कोई
न कोई विशाल नक्शा अथवा आर्किटेक्चर का पैमाना निश्चित हुआ
होगा. तो फिर यह ज्ञान आज से एक हजार साल पहले कहाँ से
आया? इस मंदिर का नक्शा क्या सिर्फ किसी एक
व्यक्ति के दिमाग में ही था और क्या वही
व्यक्ति सभी मजदूरों, कलाकारों, कारीगरों,
वास्तुविदों को निर्देशित करता था? इतने बड़े-बड़े पत्थर पचास
किमी दूर से मंदिर तक कैसे लाए गए?? 80 टन
वजनी आधार पर दूसरे बड़े-बड़े पत्थर
इतनी ऊपर तक कैसे पहुँचाया गया होगा?? या कोई
स्थान ऐसा था, जहाँ इस मंदिर के बड़े-बड़े नक़्शे और
इंजीनियरिंग के फार्मूले रखे जाते थे?? फिर हमारा इतना
समृद्ध ज्ञान कहाँ खो गया और कैसे खो गया?? क्या
कभी इतिहासकारों ने इस पर विचार किया है?? यदि हाँ, तो
इसे संरक्षित करने अथवा खोजबीन करने का कोई
प्रयास हुआ?? सभी प्रश्नों के उत्तर अँधेरे में हैं.
संक्षेप में तात्पर्य यह है कि भारतीय कला,
वास्तुकला, मूर्तिकला, खगोलशास्त्र आदि विषयों पर ज्ञान के अथाह
भण्डार मौजूद थे (बल्कि हैं) सिर्फ उन्हें पुनर्जीवित
करना जरूरी है. बच्चों को पीसा
की मीनार अथवा ताजमहल (या
तेजोमहालय??) के बारे में पढ़ाने के साथ-साथ शिवाजी
द्वारा निर्मित विस्मयकारी और अभेद्य किलों,
बृहदीश्वर जैसे विराट मंदिरों के बारे में भी
पढ़ाया जाना चाहिए. इन ऐतिहासिक, पौराणिक स्थलों की
“ब्राण्डिंग-मार्केटिंग” समुचित तरीके से की
जानी चाहिए, वर्ना हमारी
पीढियाँ तो यही समझती
रहेंगी कि मिस्त्र के पिरामिडों में ही विशाल
पत्थरों से निर्माण कार्य हुआ है, जबकि तंजावूर के इस मंदिर में
मिस्त्र के पिरामिडों के मुकाबले चार गुना वजनी पत्थरों से
निर्माण कार्य हुआ है.