Tuesday, January 6, 2015

शिव के 19 अवतार (19 avatar of Lord Shiva)

शिव के 19 अवतार (19 avatar of Lord Shiva)

शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है,

1- पिप्पलाद अवतार :-

मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।

पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधी:।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता 24/61


अर्थात ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर सुवर्चा के पुत्र का नाम पिप्पलाद रखा।

2- नंदी अवतार :-

भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।

3- वीरभद्र अवतार :-

यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रकट हुए।
शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-

क्रुद्ध: सुदष्टïोष्ठïपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्वह्लिï
सटोग्ररोचिषम्। उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो
हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं।
श्रीमद् भागवत -4/5/1

शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।

4- भैरव अवतार :-

शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवें सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवां सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। तब काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।

5- अश्वत्थामा :-

महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं।

इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-

अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय ये आठों अमर हैं।

शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं। वैसे, उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

6- शरभावतार :-

भगवान शंकर का छठे अवतार हैं शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था।इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार हिरण्यकश्पू का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकश्यपू के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव शरभ के रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।

7- गृहपति अवतार :-

भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मती गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं पितामह ब्रह्म ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।

8- ऋषि दुर्वासा :-

भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोक में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए, जो देवताओं द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।

शास्त्रों में इसका उल्लेख है-

अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ्जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मïसम्भवान्॥
-भागवत 4/1/15

अर्थ- अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए।

ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।

9- हनुमान :-

भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहीत कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।

10- वृषभ अवतार :-

भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु जी ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए, जिन्होंने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।

11- यतिनाथ अवतार :-

भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया है। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी। भील दम्पत्ति को अपने प्राण गंवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक को मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।

12- कृष्णदर्शन अवतार :-

भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए। जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गया। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके उनके धन को प्राप्त करे। तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।

13- अवधूत अवतार :-

भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्यों ही उसका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

14- भिक्षुवर्य अवतार:-

भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी ही हैं। भगवान शंकर का भिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उसे बालक का पालन पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।

15- सुरेश्वर अवतार :-

भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा। शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।

16- किरात अवतार :-

किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया। उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव की माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाया और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगा। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।

17- सुनटनर्तक अवतार :-

पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर जब शिवजी हिमाचल के घर पहुंचे तो नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।

18- ब्रह्मचारी अवतार :-

दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।

19- यक्ष अवतार :-

यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं व असुरों द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कंठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए, साथ ही उन्हें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोड़ने के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।

टिहरी बाँध

यदि टिहरी बाँध बन गया तो….. (Rajiv Dixit 1995)

हिमालय क्षेत्र में बन रहा टिहरी बाँध शुरू से ही विवादों के घेरे में रहा हैं। योजना आयोग द्वारा 1972 में टिहरी बाँध परियोजना को मंजूरी दी गई। जैसे ही योजना आयोग ने इस परियोजना को मंजूरी दी, टिहरी और आस-पास के इलाके में बाँध का व्यापक विरोध शुरू हो गया। कई शिकायते इस संबंध में केंद्र सरकार तक पहुंची। संसद की ओर से इन शिकायतों की जांच करने के लिए 1977 मेंपिटीशन540$ कमेटी निर्धारित की गई। 1980 में इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी ने बाँध से जुड़े पर्यावरण के मुद्दों की जांच करने के पप। ०0L0
0 विशेषज्ञों की समिति बनाई। इस समिति ने बाँध के विकल्प के रूप में बहती हुई नदी पर छोटे-छोटे बाँध बनाने की सिफ़ारिश की। पर्यावरण मंत्रालय ने विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के बाद अक्टूबर, 1986 में बाँध परियोजना को एकदम छोड़ देने का फैसला किया।
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अचानक नवंबर, 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ सरकार ने टिहरी बाँध निर्माण में आर्थिक मदद करने की घोषणा की। इसके बाद फिर से बाँध निर्माण कार्य की सरगर्मी बढ़ने लगी। फिर बाँध से जुड़े मुद्दों पर मंत्रालय की ओर से समिति का गठन हुआ। इस समिति ने बाँध स्थल का दौरा करने के बाद फरवरी, 1990 में रिपोर्ट दी कि टिहरी बाँध परियोजना पर्यावरण के संरक्षण की दृष्टि से बिलकुल अनुचित हैं। मार्च, 1990 में एक उच्च स्तरीय समिति ने बांध की सुरक्षा से जुड़े हुए मुद्दों का अध्ययन किया। जुलाई, 1990 में मंत्रालय ने बांध के निर्माण कार्य को शुरू करने से पूर्व सात शर्तों को पूरा करने के लिए कहा। इन सात शर्तों को पूरा करने के लिए समय सीमा निर्धारित की गयी।

लेकिन इस समय सीमा के बीत जाने के बावजूद आज तक एक भी शर्त पूरी नहीं की गई। अब बांध का निर्माण कार्य बिना शर्त पूरा किए शुरू कर दिया गया है। बांध का निर्माण कार्य करने वाली एजेंसियो को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कई बार याद दिलाया गया, लेकिन बांध निर्माण से जुड़ी हुई कोई भी शर्त नहीं मनी गयी। अगस्त, 1991 में इसी बात को लोकसभा में चेतावनी के रूप में उठाया गया, जिस पर काफी बहस हुई। कई सांसदो ने बांध क्षेत्र में भूकम्प की संभावनाओं पर चिंता व्यक्त की। अक्टूबर, 1991 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया, जिससे जान-माल की काफी हानि हुई। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि बांध क्षेत्र में भूकम्प की आशंकाए निरधार नहीं हैं।

टिहरी बांध बनाने से 125 गाँव डूबेंगे और 2 लाख से अधिक लोगो को विस्थापित होना पड़ेगा। बॉटनीकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार बांध बनने से पेड़-पौधो की 462 प्रजातियाँ लुप्त हो जाएगी। इनमें से 12 प्रजातियाँ अत्यंत दुर्लभ मानी जाती हैं। बांध के बनने से 70 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में 20 हजार हेक्टेयर उपजाऊ भूमि पूरी तरह से डूब जाएगी। 1993 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजे गये एक नोट में कहा गया है कि यदि यह बांध टूट जाता हैं तो यह विशाल जलाशय 22 मिनट मे खाली हो जाएगा, 63 मिनट में ऋषिकेश 260 मीटर पानी में डूब जाएगा।

अगले बीस मिनट में हरिद्वार 232 मीटर पानी के नीचे होगा। बाढ़ का यह पानी विनाश करते हुए बिजनौर, मेरठ, हापुड़ और बुलंदशहर को 12 घंटो में 8.5 मीटर गहरे पानी में डुबो देगा। करोड़ो लोगों के जान-माल का जो नुकसान होगा, वह बांध की लागत से कई गुना अधिक होगा। दूसरा खतरा यह है कि यह बांध चीन की सीमा से लगभग 100 मील की दूरी पर हैं। चीन के साथ किसी संघर्ष में यदि इस बांध को दुश्मनों द्वारा तोड़ दिया जाए तो भी विनाश का यही दृश्य उपस्थित हो सकता हैं जो भूकम्प के आने पर होगा। जल प्रलय की यह भयावह आशंका रूह को कंपा देती हैं। अगस्त, 1975 में चीन के हिनान प्रांत में इसी तरह का बांध टूटा था जिसके जल प्रलय मे 2 लाख 30 हजार लोगों की मौत हुई।

टिहरी बांध के निर्माण में व्याप्त भ्रष्टाचार आंखे खोल देने वाला हैं। 1986 में भारत के महानियंत्रक लेखा परीक्षक श्री टी.एन. चतुर्वेदी द्वारा दी गई रिपोर्ट में बांध के बेतहाशा बढ़ते हुए खर्चे की ओर सरकार का ध्यान दिलाया गया। 1972 में इस परियोजना की लागत 198 करोड़ थी, लेकिन आज यह बढ़कर 8000 करोड़ रुपये से भी अधिक हो चुकी हैं। इसका मुख्य कारण मुद्रास्फीति नहीं, बल्कि इसमें होने वाला भ्रष्टाचार हैं। क्योंकि 1972 से 1994 तक मुद्रास्फीति की दर उस रफ्तार से कतई नहीं बढ़ी हैं, जिस रफ्तार से बांध की लागत को बढ़ाया गया हैं श्री टी.एन. चतुर्वेदी जी ने स्पष्ट कहा था कि, “यह बांध परियोजना घाटे का सौदा हैं। ”

हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र काफी कच्चा हैं। इसलिए गंगा में बहने वाले जल में मिट्टी की मात्रा अधिक होती हैं देश की सभी नदियों से अधिक मिट्टी गंगा जल में रहती हैं। अत: जब गंगा के पानी को जलाशय मे रोका जाएगा तो उसमें गाद भरने की दर देश के किसी भी अन्य बांध में गाद भरने की दर से अधिक होगी। दूसरी ओर, टिहरी में जिस स्थान पर जलाशय बनेगा वहाँ के आस-पास का पहाड़ भी अत्यंत कच्चा हैं। जलाशय में पानी भर जाने पर पहाड़ की मिट्टी कटकर जलाशय में भरेगी। अर्थात गंगा द्वारा गंगोत्री से बहाकर लायी गयी मिट्टी तथा जलाशय के आजू-बाजू के पहाड़ से कटकर आयी मिट्टी दोनों मिलकर साथ-साथ जलाशय को भरेंगे। गाद भरने की दर के अनुमान के मुताबिक टिहरी बांध की अधिकतम उम्र 40 वर्ष ही आँकी गई हैं। अत: 40 वर्षो के अल्प लाभ के लिए करोड़ों लोगों के सिर पर हमेशा मौत की तलवार लटकाए रखना लाखों लोगों को घर-बार छुड़ाकर विस्थापित कर देना एवं भागीरथी और भिलंगना की सुरम्य घाटियो को नष्ट कर देना पूरी तरह आत्मघाती होगा।

टिहरी बांध से होने वाले विनाश में एक महत्वपूर्ण पहलू गंगा का भी हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गंगा के बहते हुए जल में ही श्राद्ध और तर्पण जैसे धार्मिक कार्य हो सकते है लेकिन बांध बन जाने से गंगा का प्रवाह जलाशय में कैद हो जाएगा हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गंगा का जल जितनी तेज गति से बहता है उतना ही शुद्ध होता हैं। यही गतिमान जल गंगा में बाहर से डाली गई गंदगी को बहाकर ले जाता हैं। गंगा भारत की पवित्रतम् नदी तो हैं ही, हमारी सभ्यता-संस्कृति की जननी भी हैं। प्रत्येक भारतवासी के मन में गंगा में एक डुबकी लगाने या जीवन के अंतिम क्षणों में गंगा जल की एक बूंद को कंठ से उतारने की ललक रहती हैं। जब भी कोई भारतवासी किसी अन्य नदी में स्नान करता हैं तो सर्वप्रथम वह गंगा का स्मरण करता हैं। यदि वह गंगा से दूर रहता हैं तो मन में सदैव गंगा में स्नान करने की इच्छा रखता हैं। जब वह अपने मंतव्य में सफल हो जाता हैं तो गंगा के परम पवित्र जल में स्नान करने के पश्चात अपने साथ गंगा जल ले जाना नहीं भूलता और घर जाकर उसे सुरक्षित स्थान पर रख देता हैं। जब भी घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान हो तो इसी गंगा जल का प्रयोग होता हैं।

राष्ट्र की एकता और अखंडता में गंगा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान हैं। शास्त्रों के अनुसार गंगोत्री से गंगा जल ले जाकर गंगा सागर में चढ़ाया जाता हैं और फिर गंगा सागर का बालू लाकर गंगोत्री में डाला जाता हैं। इस पूरी प्रक्रिया में व्यक्ति को गंगोत्री से गंगासागर और फिर गंगासागर से गंगोत्री तक की यात्रा करनी होती हैं। देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक की यह यात्रा ही राष्ट्रीय एकता के उस ताने-बाने को बुनती हैं जिसमें देश की धरोहर बुनी हुई हैं। गंगा हमारे राष्ट्र की जीवनधारा हैं और इसे रोकना राष्ट्र के जीवन को रोकने जैसा हैं। 1914-16 में स्व. पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने अंग्रेज़ो द्वारा भीमगौड़ा में बनाए जाने वाले बांध के खिलाफ आंदोलन किया था। इस आंदोलन से पैदा हुए जन आक्रोश के कारण बाँध बनाने का फैसला रद्द कर दिया था। मालवीय जी ने अपनी मृत्यु से पूर्व श्री शिवनाथ काटजू को लिखे पत्र में कहा था कि “गंगा को बचाए रखना।”

प्राचीन भारतीय गोत्र प्रणाली

प्राचीन भारतीय गोत्र प्रणाली

गोत्र शब्द का अर्थ होता है वंश/कुल (lineage)
गोत्र प्रणाली का मुख्या उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके मूल प्राचीनतम व्यक्ति से
जोड़ना है।
उदहारण के लिए यदि को व्यक्ति कहे की उसका गोत्र भरद्वाज है तो इसका अभिप्राय
यह है की उसकी पीडी वैदिक ऋषि भरद्वाज से प्रारंभ होती है या ऐसा समझ लीजिये
की वह व्यक्ति ऋषि भरद्वाज की पीढ़ी में जन्मा है ।
इस प्रकार गोत्र एक व्यक्ति के पुरुष वंश में मूल प्राचीनतम व्यक्ति को दर्शाता है.
The Gotra is a system which associates a person with his most ancient
or root ancestor in an unbroken male lineage.


ब्राह्मण स्वयं को निम्न आठ ऋषियों (सप्तऋषि +अगस्त्य ) का वंशज मानते है ।
जमदग्नि,अत्रि ,गौतम,कश्यप,वशिष्ठ ,विश्वामित्र,भरद्वाज,अगस्त्य
Brahmins identify their male lineage by considering themselves to be the descendants of the 8 great Rishis ie Saptarshis (The Seven Sacred Saints)
Agastya
उपरोक्त आठ ऋषि मुख्य गोत्रदायक ऋषि कहलाते है ।
तथा इसके पश्चात जितने भी अन्य गोत्र अस्तित्व में आये है वो इन्ही आठ मे से
एक से फलित हुए है और स्वयं के नाम से गौत्र स्थापित किया .
उदा० => अंगीरा की ८ वीं पीडी में कोई ऋषि क हुए तो परिस्थतियों के अनुसार उनके
नाम से गोत्र चल पड़ा।
और इनके वंशज क गौत्र कहलाये किन्तु क गौत्र स्वयं अंगीरा से उत्पन्न हुआ है ।
इस प्रकार अब तक कई गोत्र अस्तित्व में है ।
किन्तु सभी का मुख्य गोत्र आठ मुख्य गोत्रदायक ऋषियों मेसे ही है ।
All other Brahmin Gotras evolved from one of the above Gotras.
What this means is that the descendants of these Rishis over time
started their own Gotras.
All the established Gotras today,each of them finally trace back to
one of the root 8 Gotrakarin Rishi.
गौत्र प्रणाली में पुत्र का महत्व | Importance of Son in the Gotra System:
गौत्र द्वारा पुत्र व् उसे वंश की पहचान होती है ।
यह गोत्र पिता से स्वतः ही पुत्र को प्राप्त होता है ।
परन्तु पिता का गोत्र पुत्री को प्राप्त नही होता ।
उदा ० माने की एक व्यक्ति का गोत्र अंगीरा है और उसका एक पुत्र है ।
और यह पुत्र एक कन्या से विवाह करता है जिसका पिता कश्यप गोत्र से है ।
तब लड़की का गोत्र स्वतः ही गोत्र अंगीरा में परिवर्तित हो जायेगा जबकि कन्या
का पिता कश्यप गोत्र से था ।
इस प्रकार पुरुष का गोत्र अपने पिता का ही रहता है और स्त्री का पति के
अनुसार होता है न की पिता के अनुसार ।
यह हम अपने देनिक जीवन में देखते ही है,कोई नई बात नही !
परन्तु ऐसा क्यू ?
पुत्र का गोत्र महत्वपूर्ण और पुत्री का नही ।
क्या ये कोई अन्याय है ??
बिलकुल नही !!
देखें कैसे :
गुणसूत्र का अर्थ है वह सूत्र जैसी संरचना जो सन्तति में माता पिता के गुण पहुँचाने
का कार्य करती है ।
हमने स्कूल में पढ़ा था की मनुष्य में २ ३ जोड़े गुणसूत्र होते है ।
प्रत्येक जोड़े में एक गुणसूत्र माता से तथा एक गुणसूत्र पिता से आता है ।
इस प्रकार प्रत्येक कोशिका में कुल ४ ६ गुणसूत्र होते है जिसमे २ ३ माता से व् २ ३
पिता से आते है ।
जैसा की कुल जोड़े २ ३ है ।
इन २ ३ में से एक जोड़ा लिंग गुणसूत्र कहलाता है यह होने वाली संतान का लिंग
निर्धारण करता है अर्थात पुत्र होगा अथवा पुत्री ।
यदि इस एक जोड़े में गुणसूत्र xx हो तो सन्तति पुत्री होगी और यदि xy हो तो पुत्र होगा ।
परन्तु दोनों में x सामान है ।
जो माता द्वारा मिलता है और शेष रहा वो पिता से मिलता है ।
अब यदि पिता से प्राप्त गुणसूत्र x हो तो xx मिल कर स्त्रीलिंग निर्धारित करेंगे और
यदि पिता से प्राप्त y हो तो पुर्लिंग निर्धारित करेंगे ।
इस प्रकार x पुत्री के लिए व् y पुत्र के लिए होता है ।
इस प्रकार पुत्र व् पुत्री का उत्पन्न होना पूर्णतया पिता से प्राप्त होने वाले x अथवा y
गुणसूत्र पर निर्भर होता है माता पर नही ।
अब यहाँ में मुद्दे से हट कर एक बात और बता दूँ की जैसा की हम जानते है की पुत्र
की चाह रखने वाले परिवार पुत्री उत्पन्न हो जाये तो दोष बेचारी स्त्री को देते है जबकि
अनुवांशिक विज्ञानं के अनुसार जैसे की अभी अभी उपर पढ़ा है की “पुत्र व् पुत्री का
उत्पन्न होना पूर्णतया पिता से प्राप्त होने वाले x अथवा y गुणसूत्र पर निर्भर होता है
न की माता पर “
फिर भी दोष का ठीकरा स्त्री के माथे मांड दिया जाता है ।
है ना मूर्खता !
अब एक बात ध्यान दें की स्त्री में गुणसूत्र xx होते है और पुरुष में xy होते है ।
इनकी सन्तति में माना की पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र). इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से
ही आया यह तो निश्चित ही है क्यू की माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र). यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते है ।
१. xx गुणसूत्र ;-
xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री . xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x
गुणसूत्र माता से आता है ।
तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover
कहा जाता है ।
२. xy गुणसूत्र ;-
xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र . पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्यू की माता
में y गुणसूत्र है ही नही ।
और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूर्ण Crossover नही होता केवल ५ %
तक ही होता है । और ९ ५ % y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है ।
तो महत्त्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ । क्यू की y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है की
यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।
बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो
हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।
वैदिक गोत्र प्रणाली य गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का
एक माध्यम है।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विधमान y
गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल है ।
चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारन है की विवाह के पश्चात स्त्रियों को
उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।
वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारन यह है की
एक ही गोत्र से होने के कारन वह पुरुष व् स्त्री भाई बहिन कहलाये क्यू की उनका
पूर्वज एक ही है ।
परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही ? की जिन स्त्री व् पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा
तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे,
तो वे भाई बहिन हो गये .?
इसका एक मुख्य कारन एक ही गोत्र होने के कारन गुणसूत्रों में समानता का भी है ।
आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों
में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी ।
ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा,पसंद, व्यवहार आदि में कोई
नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है।
विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर
अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता,
अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं।
शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था।
first cousin marriage increases the risk of passing on genetic abnormalities.
But for Bittles,35 years of research on the health effects of cousin marriage
have led him to believe that the risks of marrying a cousin have been greatly exaggerated.
There’s no doubt that children whose parents are close biological relatives
are at a greater average risk of inheriting genetic disorders,
Bittles writes.
Studies of cousin marriages worldwide suggest that the risks of illness
and early death are three to four percent higher than in the rest of the
population.

http://www.eurekalert.org/pub_re…/2012-04/nesc-wnm042512.php

http://www.huffingtonpost.com/…/why-ban-cousin-marriages_b_

http://www.thenews.com.pk/Todays-News-9-160665-First-cousin

अब यदि हम ये जानना चाहे की यदि चचेरी,ममेरी,मौसेरी, फुफेरी आदि बहिनों से विवाह
किया जाये तो क्या क्या नुकसान हो सकता है ।
इससे जानने के लिए आप उन समुदाय के लोगो के जीवन पर गौर करें जो अपनी चचेरी,
ममेरी,मौसेरी,फुफेरी बहिनों से विवाह करने में १ सेकंड भी नही लगाते ।
फलस्वरूप उनकी संताने बुद्धिहीन,मुर्ख,प्रत्येक उच्च आदर्श व् धर्म (जो धारण करने
योग्य है ) से नफरत,मनुष्य-पशु-पक्षी आदि से प्रेमभाव का आभाव आदि जैसी
मानसिक विकलांगता अपनी चरम सीमा पर होती है ।
या यूँ कहा जाये की इनकी सोच जीवन के हर पहलु में विनाशकारी (destructive) व्
निम्नतम होती है तथा न ही कोई रचनात्मक (constructive), सृजनात्मक,
कोई वैज्ञानिक गुण,देश समाज के सेवा व् निष्ठा आदि के भाव होते है ।
यही इनके पिछड़ेपन का प्रमुख कारण होता है ।
उपरोक्त सभी अवगुण गुणसूत्र,जीन व् डीएनए आदि में विकार के फलस्वरूप ही
उत्पन्न होते है।
इन्हें वर्ण संकर (Genetic Mutations) भी कह सकते है !!
ऐसे लोग (?) अक्ल के पीछे लठ लेकर दौड़ते है ।
यदि आप कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के जानकार है तो गौत्र प्रणाली को आधुनिक सॉफ्टवेयर
निर्माण की भाषा ऑब्जेक्ट ओरिएंटेड प्रोग्रामिंग (Object Oriented Programming :
oop) के माध्यम से भी समझ सकते है ।
Object Oriented Programming के inheritance नामक तथ्य को देखें ।
हम जानते है की inheritance में एक क्लास दूसरी क्लास के function, variable
आदि को प्राप्त कर सकती है ।
ऊपर फोटो में एक चित्र मल्टीप्ल इनहेरिटेंस का है
इसमें क्लास b व् c क्लास a के function, variable को प्राप्त (inherite) कर रही है ।
और क्लास d क्लास b,c दोनों के function, variable को एक साथ प्राप्त (inherite)
कर रही है।
अब यहाँ भी हमें एक समस्या का सामना करना पड़ता है जब क्लास b व् क्लास c में
दो function या variable एक ही नाम के हो !
उदा ० यदि माने की क्लास b में एक function abc नाम से है और क्लास c में भी
एक function abc नाम से है।
जब क्लास d ने क्लास b व् c को inherite किया तब वे एक ही नाम के दोनों function
भी क्लास d में प्रविष्ट हुए ।
जिसके फलस्वरूप दोनों functions में टकराहट के हालात पैदा हो गये ।
इसे प्रोग्रामिंग की भाषा में ambiguity (अस्पष्टता) कहते है ।

जिसके फलस्वरूप प्रोग्राम में error उत्पन्न होता है ।
अब गौत्र प्रणाली को समझने के लिए केवल उपरोक्त उदा ० में क्लास को स्त्री व् पुरुष
समझिये , inherite करने को विवाह,समान function, variable को समान गोत्र तथा
ambiguity को आनुवंशिक विकार ।
ऋषियों के अनुसार कई परिस्थतियाँ ऐसी भी है जिनमे गोत्र भिन्न होने पर भी विवाह नही होना चाहिए ।
देखे कैसे :


असपिंडा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:
सा प्रशस्ता द्विजातिनां दारकर्मणि मैथुने ….मनुस्मृति ३ /५
-जो कन्या माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो,
उस कन्या से विवाह करना उचित है ।
When the man and woman do not belong to six generations from the
maternal side and also do not come from the father’s lineage,marriage
between the two is good.
-Manusmriti 3/5
उपरोक्त मंत्र भी पूर्णतया वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है देखें कैसे :
वह कन्या पिता के गोत्र की न हो अर्थात लड़के के पिता के गोत्र की न हो ।
लड़के का गोत्र = पिता का गोत्र
अर्थात लड़की और लड़के का गोत्र भिन्न हो।
माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो ।
अर्थात पुत्र का अपनी माता के बहिन के पुत्री की पुत्री की पुत्री …………६ पीढ़ियों तक
विवाह वर्जित है।
Manusmriti 3/5

बैटरी का आविष्कार – महर्षि अगस्त्य

बैटरी का आविष्कार – महर्षि अगस्त्य

समान्यतः हम मानते हैं की विद्युत बैटरी का आविष्कार बेंजामिन फ़्रेंकलिन ने किया था, किन्तु आपको यह जानकार सुखद आश्चर्य होगा की बैटरी के बारे में सर्वप्रथम हमारे पूर्वजो ने विश्व को बतलाया ।बैटरी सबसे पहले भारत मे बनी | बैटरी बनाने की जो विधि है जो आधुनिक विज्ञानं ने भी स्वीकार कर रखी है वो महर्षि अगस्त द्वारा दी गयी विधि है | महर्षि अगस्त ने सबसे पहले बैटरी बनाई थीऔर उसका विस्तार से वर्णन है अगस्त संहिता मे | पूरा बैटरी बनाने की विधि या तकनीक उन्होंने दिया है और कई लोगोने बनाके भी देखा है, और ये तकनीक हजारो वर्ष पहले की है |महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। ये वशिष्ठ मुनि (राजा दशरथ के राजकुल गुरु) के बड़े भाई थे। वेदों से लेकर पुराणों में इनकी महानता की अनेक बार चर्चा की गई है, इन्होने अगस्त्य संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमे इन्होँने हर प्रकार का ज्ञान समाहित किया, इन्हें त्रेता युग में भगवान श्री राम से मिलने का सोभाग्य प्राप्त हुआ उस समय श्री राम वनवास काल में थे, इसका विस्तृत वर्णन श्री वाल्मीकि कृत रामायण में मिलता है, इनका आश्रम आज भी महाराष्ट्र के नासिक की एक पहाड़ी पर स्थित है।



अगस्त्य संहिता में एक सूत्र हैःसंस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥अर्थात् एक मिट्टी का बर्तन लें, उसमें अच्छी प्रकार से साफ किया गया ताम्रपत्र और शिखिग्रीवा (मोर के गर्दन जैसा पदार्थ अर्थात् कॉपरसल्फेट) डालें। फिर उस बर्तन को लकड़ी के गीले बुरादे से भर दें। उसके बाद लकड़ी के गीले बुरादे के ऊपर पारा से आच्छादित दस्त लोष्ट (mercury-amalgamated zinc sheet) रखे। इस प्रकार दोनों के संयोग से अर्थात् तारों के द्वारा जोड़ने पर मित्रावरुणशक्ति की उत्पत्ति होगी।यहाँ पर उल्लेखनीय है कि यह प्रयोग करके भी देखा गया है जिसके परिणामस्वरूप 1.138 वोल्ट तथा 23 mA धारा वाली विद्युत उत्पन्न हुई। स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के द्वारा उसके चौथे वार्षिक सभा में ७ अगस्त, १९९० को इस प्रयोग का प्रदर्शन भी विद्वानों तथा सर्वसाधारण के समक्ष किया गया।अगस्त्य संहिता में आगे लिखा हैःअनेन जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु।एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥अर्थात सौ कुम्भों (अर्थात् उपरोक्त प्रकार से बने तथा श्रृंखला में जोड़े ग! सौ सेलों) की शक्ति का पानी में प्रयोग करने पर पानी अपना रूप बदल कर प्राण वायु (ऑक्सीजन) और उदान वायु (हाइड्रोजन) में परिवर्तित हो जाएगा।फिर लिखा गया हैःवायुबन्धकवस्त्रेण निबद्धो यानमस्तके उदान स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्‌।अर्थात् उदान वायु (हाइड्रोजन) को बन्धक वस्त्र (air tight cloth) द्वारा निबद्ध किया जाए तो वह विमान विद्या (aerodynamics) के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।



राव साहब वझे, जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों को ढूंढ़ने में अपना जीवन लगाया, उन्होंने अगस्त्य संहिता एवं अन्य ग्रंथों के आधार पर विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती हैं, इस आधार उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे-



(१) तड़ित्‌-रेशमी वस्त्रों के घर्षण से उत्पन्न।(२) सौदामिनी-रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।(३) विद्युत-बादलों के द्वारा उत्पन्न।(४) शतकुंभी-सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।(५) हृदनि- हृद या स्टोर की हुई बिजली।(६) अशनि-चुम्बकीय दण्ड से उत्पन।



अगस्त्य संहिता में विद्युत्‌ का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पालिश चढ़ाने की विधि निकाली। अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।



कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। -शुक्र नीतियवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥आच्छादयति तत्ताम्रंस्वर्णेन रजतेन वा।सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रंशातकुंभमिति स्मृतम्‌॥ ५ (अगस्त्य संहिता)



अर्थात्‌-कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।



स्पष्ट है कि यह आज के विद्युत बैटरी का सूत्र (Formula for Electric battery) ही है। साथ ही यह प्राचीन भारत में विमान विद्या होने की भी पुष्टि करता है।इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों में बहुत सारे वैज्ञानिक प्रयोगों के वर्णन हैं, आवश्यकता है तो उन पर शोध करने की। किन्तु विडम्बना यह है कि हमारी शिक्षा ने हमारे प्राचीन ग्रन्थों पर हमारे विश्वास को ही समाप्त कर दिया है।

(Magnetic levitation and Hindu Temples)

चुंबकीय उत्तोलन और हिंदू मंदिर (Magnetic levitation and Hindu Temples)
आपने जेकी चेन की The Myth नाम की फिल्म तो देखि ही होगी ??
नहीं तो जरुर देखे ,उसमे जेकी चेन एक पुरातत्व विद था जो भारत में एक मंदिर में आता है ।
उस मंदिर में साधू उड़ पा रहे थे क्युकी 2 काले जादुई पत्थर के कारण ।
यह कल्पना नहीं पर सत्य है ,पर साधू के बजाये मुर्तिया हवा में तैरती थी ।
चुम्बक का उल्लेख हिंदू ग्रंथ में
मणिगमनं सूच्यभिसर्पण मित्यदृष्ट कारणं कम्||
वैशेषिक दर्शन ५/१/१५||
अर्थात् तृणो का मणि की ओर चलना ओर सुई
का चुम्बक की ओर चलना,अदृश्य कर्षण
शक्ति के कारण है । सोत्र
यह कणाद मुनि के ग्रंथ वैशेषिक दर्शन है ,कणाद मुनि 600 ईसापूर्व के थे यानि गौतम बुद्ध के समय का ।
चुंबकीय उत्तोलन या Magnetic Levitation का अर्थ होता है चुंबकीय बल के सहारे तैरना ।
हर चुंबक के 2 ध्रुव होते है उत्तर और दक्षिण
चुंबक का नियम होता है की विपरीत ध्रुव एक दुसरे को आकर्षित करते है और समान ध्रुव एक दुसरे को धकेलते है ।
उधारण :

उत्तर ध्रुव दक्षिण ध्रुव को या दक्षिण ध्रुव उत्तर ध्रुव को आकर्षित करता है
पर
उत्तर ध्रुव उत्तर ध्रुव को या दक्षिण ध्रुव दक्षिण ध्रुव को धकेलता है ।
यही नियम बुलेट ट्रेन में काम आता है ।
2 समान ध्रुव एक दुसरे को धकेलते है जिससे इतना बल पैदा होता है की ट्रेन आगे बड़े ।
इसी का उपयोग हिंदुओ ने अपने मंदिरों में किया ।
मुझे 4 हिंदू मंदिरो का विवरण मिला है जिसमे चुंबकीय उत्तोलन का उपयोग हुआ था ।
सोमनाथ मंदिर (600 इसवी )
गुजरात में स्थित सोमनाथ मंदिर को गुजरात के यादव राजाओ ने बनाया था 600 इसवी में ।
सोमनाथ ज्योतिर्लिंगो में से एक है ।
कई मुस्लमान राजाओ ने इसको तोडा और इसमें स्थित शिव लिंग भी तोड़ दिया ।
स्थानीय लेखो के अनुसार सोमनाथ मंदिर का शिव लिंग हवा में तैरता था ।
हिंदुओ के अलावा मुसलमानों ने भी इसका वर्णन किया ।
क्वाज़िनी अल ज़कारिया सन 1300 इसवी में भारत में आया था ,वे फारसी लेखक थे और दुनिया के अजीब अजीब वस्तुओ पर लिखते थे ।
सोमनाथ के शिवलिंग पर क्वाज़िनी लिखते है :- “सोमनाथ मंदिर के बिच में सोमनाथ की मूर्ति थी ,वह हवा में तैर रही थी ,उसे न ऊपर से सहारा था न नीचे से ।स्थानीय ही क्या मुस्लमान भी आश्चर्य करेगा ।”
इस विवरण से पुष्टि हो गई है की सोमनाथ मंदिर में शिव लिंग हवा में तैरता था ।
कुछ विद्वानों अनुसार यह आँखों का धोका था ।
सम्राट ललितादित्य मुक्तापिद का विष्णु मंदिर (700 इसवी )
सम्राट ललितादित्य कश्मीर के महान राजा थे जिन्होंने अरब और तिब्बत के हमले को रोक और कन्नौज पर राज किया जो उस समय भारत का केंद्र माना जाता था ।
स्त्री राज्य जो असम में ही कही स्थित था उसे जीतने के बाद सम्राट ललितादित्य ने स्त्री राज्य में ही विष्णु मंदिर की स्थापना की थी ।
विवरणों के अनुसार उस मंदिर में स्थित विष्णु जी की मूर्ति हवा में तैरती थी ।
इस मंदिर की सही स्थिति नहीं पता और इसके अवशेष अभी तक नहीं मिले ।
विद्वानों के अनुसार जिस कदर मुसलमानों ने ललितादित्य का सूर्य मंदिर तोड़ दिया था ठीक वैसे ही इस मंदिर को भी तोड़ा गया था ।
वज्रवराही का मंदिर (800 इसवी )
यह मंदिर है तो बोद्ध पर हिंदू देवी वराही को समर्पित है ।
यह मंदिर भूटान में Chumphu nye में स्थित है ,इस मंदिर के भीतर फोटो लेने की मनाही है इसीलिए वराही देवी की हवा में तैरते हुए फोटो नहीं ।
कई प्रत्यक्षदर्शी मंदिर में जा चुके है और उनके अनुसार वराही देवी की मूर्ति और थल के बिच 1 ऊँगली भर जगह है और मूर्ति बिना सपोर्ट के हवा में है ।
स्थानीय लोगो के अनुसार वह मूर्ति मनुष्य निर्मित नहीं बल्कि प्रकट हुई है ।
कुछ विद्वानों के अनुसार वह मूर्ति चुंबक के कारण हवा में तैर पा रही है ।
क्युकी भूटान और तिब्बत का बोद्ध धर्म बुद्ध के उपदेशो पे कम और हिंदू उपदेशो पर ज्यादा है इसीलिए मंदिर बनाने का यह ज्ञान हिंदुओ से बोद्ध भिक्षुओ को मिला ।
यही एक बची हुई ऐसी मूर्ति है जो सिद्ध करती है की हिंदू मंदिरों में मुर्तिया हवा में तैरती थी ।
कोणार्क का सूर्य मंदिर (1300 इसवी )
इसा के 1300 वर्ष बाद उड़ीसा में पूर्वी गंग राजाओ ने कोणार्क का सूर्य मंदिर बनवाया था ।
स्थानीय कथाओ के अनुसार कोणार्क के सूर्य मंदिर में सूर्य देव की जो मूर्ति थी वह हवा में तैरती थी ।
पुरातात्विक विश्लेषण से पता चला है की मंदिर का मुख्य भाग चुंबक से बना था जो गिर गया था ।
कम से कम 52 टन चुंबक मिलने की बात कही जाती है ।
उसी चुंबक वाले भाग में वह मूर्ति थी ,यह सबसे अच्छा साबुत है हिंदू मंदिरों में चुंबकीय उत्तोलन का क्युकी इस मंदिर में चुंबक मिला है ।
मूर्ति को हवा में उठाने के साथ चुंबक का एक और उपयोग था यानि चुंबकीय चिकित्सा ।
चुंबकीय चिकित्सा का अर्थ है चुंबक की उर्जा से इलाज करना ।
कोणार्क के सूर्य मंदिर का बहोत सा ढाचा गिर गया था जिसमे वह चुंबक से बना भाग भी था ।
भारत में चुंबक का उल्लेख 600 ईसापूर्व से मिलता है ,मुसलमानों के साथ साथ पुरातात्विक सबूत भी हिंदू मंदिरों में चुंबकीय उत्तोलन के सबूत देते है ।

Saturday, January 3, 2015

Exposing west agenda to malign Hindus-NO BEEF IN VEDAS

Exclusive : Exposing the west
Monothesis propoganda : Make us doubt our own culture!
Key points form Vedas that talk about nature and animals
No violence against animals
No violence in Yajna/Yagya/Yagna
No beef in Vedas
Not only the Vedas are against animal slaughter but also vehemently oppose and prohibit cow slaughter.Yajurveda forbids killing of cows, for they provide energizing food for human beings
The Vedas – the very roots of Hinduism, rather the first source of knowledge on earth – are meant for guiding the actions of human being in order to lead a blissful life.
This slanderous campaign has been unleashed by different vested interests to embarrass Hindus around the world citing specific references from the Vedas.
This also comes handy in convincing poor and illiterate Indians to give up their faith on the grounds that their fundamental holy books – the Vedas – contain all the inhuman elements like denigration of women, meat-eating, polygamy, casteism and above all – beef eating.
The Vedas are also accused of animal sacrifice in sacrificial ceremonies popularly known as the YAJNA. Interestingly a section of home-bred intellectuals claiming to have deep study of ancient India has also come up, who cite references from works of western indologists to prove such unholy content in the Vedas.
Saying that the Vedas permit beef-eating and cow-slaughter amounts to striking a lethal blow to a Hindu’s soul. Respect for cow forms a core tenet of Hinduism. Once you are able to convince him of flaws in the foundation of this core tenet and make him feel guilty, he becomes an easy prey for the predator faiths. There are millions of ill-informed Hindus who are not empowered to counter argue and hence quietly surrender.
The vested interests that malign the Vedas are not confined to foreign and home-bred indologists alone. A certain class among Hindus exploited the rest of the population including the socially and economically weaker sections by forcing them to believe and follow what they said in the name of Vedas or else face the wrath.
All the slanders heaped upon the Vedas can be attributed mainly to the interpretations of commentaries written by Mahidhar, Uvat and Saayan in the medieval times; and to what Vam-margis or the Tantra cult propagated in their books in the name of the Vedas.
In due course the falsehood spread far and wide and they became even more deep rooted when western scholars with their half baked knowledge of Sanskrit transliterated these interpretations of commentaries of Sayan and Mahidhar, in the name of translating the Vedas.
However, they lacked the pre-requisite understanding of Shiksha (Phonetics), Vyakarana (Grammar), Nirukta (Philology), Nighantu (Vocabulary), Chhanda (Prosody), Jyotish (Astronomy), Kalpa and so on that are critical for correct interpretation of the Vedas
Source : agniveer.com

GITA ,ATOMIC BOMB AND ROBERT OPENHEIMER

J. Robert Oppenheimer,
American nuclear physicist
(1904-1967): "If the radiance of a thousand suns were to burst into the sky, that would be like the splendor of the Mighty One. . . . Now I am become death, the destroyer of worlds.“
Except Indians,all great scientists and great minds are followers and devotees ofHindu Scripts .
Oppenheimer "the father of the atomic bomb" quoting from the Hindu scripture Bhagavad-Gita upon witnessing the mushroom cloud resulting from the detonation of the world’s first atomic bomb in New Mexico, U.S.A., on July 16, 1945.
“Access to the Vedas is the greatest privilege this century may claim over all previous centuries. “
The first atomic explosion as recorded in the world history took place at a remote place near New Mexico in July 16, 1945. This first atomic explosion was done to test the destructive power of an atomic explosion and unleash the theoretical assumptions. And now as usual I’m here to say that prehistoric nuclear explosions were present in ancient India. Though it was not proved, it is believed that atomic explosions might have taken place in India in pre historic period.
Dr. Julius Robert Oppenheimer - Father of atom bomb
The first atomic bomb was detonated by Dr. Julius Robert Oppenheimer on July 16, 1945 in the Trinity test in New Mexico as mentioned earlier. Dr.J.R.Oppenheimer is called the father of the atomic bomb. During the explosion of the first atomic bomb, Oppenheimer quoted several Bhagavad Gita verses from the 11th chapter, such as:
“Death I am, cause of destruction of the worlds…”
Oppenheimer about Bhagavad Gita
He also quotes the Indian Vedas as “The Vedas are the greatest privilege of this century.”
Few days later during a college lecture, a student asked “Was the atomic test at Alamagordo the first nuclear blast?” (The student meant was there any U.S program before Alamagordo?)
Oppenheimer answered: “Yes, In modern times.” (Oppenheimer meant that it was the first one, not counting the ancient nuclear wars of the past)
So, how does Oppenheimer believe about the ancient atomic explosions in India?
In his first year as an graduate at Havard, Oppenheimer was admitted to graduate standing in physics on the basis of independent study. As an undergraduate he never took a class in phyics. In 1933 he learned Sanskrit and met the Indologist Arthur Ryder at Berkely. He read the Gita in Sanskrit. He later developed a keen interest towards the ancient texts of India. Later he cited a visit to India as the most influential thing in his life.
Ancient Indian Vimana
For every theory he gives a quote from Mahabharata or Gita. Once he stated about the ancient Indian texts that “They are not fictional stories. They are history. They speak of flying vimanas. ‘Vimanas’ were real vehicles and the origin of the ‘Aeroplanes’. Great wars were described in the early texts. Weapons could literally level the land like a moving force field.”
About ancient atomic explosions Oppenheimer stated that “In ancient India, we find words for certain measurements of length, one was the distance of light-years and one was the length of the atom. Only a society that possessed nuclear energy would have the need for such words.”
Evidences for ancient atomic warfare around the globe in New York Tribune Newspaper
Historian Kisai Mohan Ganguli says that Indian sacred writings are full of such descriptions which sound like an atomic blast as experienced in Hiroshima and Nagasaki. He says references mention fighting sky chariots and final weapons. An ancient battle is described in the Drona Parva, a section of Mahabharata. “The passage tells of combat where explosions of final weapons decimate entire armies, causing crowds of warriors with steeds and elephants and weapons to be carried away as if they were dry leaves of trees,” says Ganguli.
Consider these verses from the ancient epic Mahabharata, “A single projectile charged with all the power of the universe. An incandescent column of smoke and flame as bright as the thousand suns rose in its entire splendor. A perpendicular explosion with its billowing smoke clouds. The cloud of smoke rising after its explosion formed into expanding round circles like the opening of giant parasols. It was unknown weapon, an ironic thunderbolt, A gigantic messenger of death, which reduced to ashes. The
Devasting Power of a Nuclear Bomb
entire race of the Virshins and the Andhakas were destroyed. The corpses were so burned as to be unrecognizable. The hair and nails fell out, pottery broke without apparent cause,And the birds turned white. After a few hours all foodstuffs were infected. To escape from this fire the soldiers threw themselves in streams to wash themselves and their equipment.” Until the bombing of Hiroshima and Nagasaki, modern mankind could not imagine any weapon as horrible and devasting as tose described in ancient Indian texts. Yet they very accurately described the effects of atomic explosion which is not possible unless they have experienced a similar one those days. Radioactive poisoning will make hair and nails fall out. Immersing oneself in water gives some respite, though it is not a cure.
Excavations at Harappa
Other evidences were obtained during the excavations at Harappa and Mohenjo-Daro. These excavations discovered skeletons scattered about the cities, many holding hands and sprawling in streets as if some instant, horrible doom had taken place. People were just lying, unburied, in the streets of the city. Excavations down to the street level revealed 44 scattered skeletons, as if doom had come so suddenly they could not get to their houses. All the skeletons were flattened to the ground. A father, mother and child were found flattered in the street, face down and still holding hands. And these skeletons are thousands of years old, even by traditional archeological standards. What could cause such a thing? Why did the bodies get decay or eaten by wild animals? Furthermore, there is no apparent cause of physically violent death.
These skeletons are among the most radioactive ever found on par with those at Hiroshima and Nagasaki.